यह कैसा खेल What kind of game hindi poems poetry kavita balkavita Dr. G. Bhakta

 यह कैसा खेल

 क्या खेल खेलते हो तुम , क्यानाच नचाते हो तुम ।

 क्या मानवता का विकृत विद्रूप रचाते हो तुम ।।

 दुनियाँ वालों मैं पूछू क्या यही है तेरा चिन्तन ।

 जिससे नित जुझ रहा है , जीवन का सुन्दर उपवन ।।

 चिर द्रोह दिशाएँ दुर्दिन , की घड़ियाँ गिनती रहती ।

 आकाश भूमि और सागर की , लहरें रो – रो कहती ।।

 विध्वंश विश्व में सम्भव , हो सकता कभी न भूलो ।

 सह भीषण दावानल को , जो जीता उसे कबूलो ।।

 शान्ति के पथ के राही , तू कैसे आशा पाले ।

 जी रहे दंद अपनाकर , तू इतने भोले – भाले ।।

 प्रकृति को जो पहचाना , विज्ञान खड़ाकर उसका ।

 संधान तुझे दिखलाकर प्रदूषण लेकर टपका ।।

 अब देखो दुनियाँ मरती , घुट – घुटकर इस जीवन में ।

 पथ पर आकर तू देखो , जलते कितने ईंधन में ।।

 ऊर्जा विच्छेपन भी है , कारण जो करे विसर्जन ।

 है स्वास्थ्य एक ही धन , जिसका वह करता भक्षण ।।

 एक चिन्तन जो उपयोगी , जीवन को दिशा दिखाये ।

 उत्कर्ष देश का ऐसा , भंडार न खाली जाये ।।

 बलवान और धनवान सुखी , चिरकाल स्वस्थ रह पाये ।

 मानवता को सरसाकर वह कर्णधार बन जाये ।।

 अपमान और संहार सदा से हेय कर्म कहलाते ।

 दुर्जय दुस्साहस जग को सुख शान्ति नही दे पाता ।।

 अब चेतो ! देर करो मत , युग बोध जरा अपनाओ ।

 मानवता को ठुकराकर , दानव तुम मत बन जाओ ।।

One thought on “ यह कैसा खेल, क्या खेल खेलते हो तुम , क्यानाच नचाते हो तुम ।”

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