यह कैसा खेल
क्या खेल खेलते हो तुम , क्यानाच नचाते हो तुम ।
क्या मानवता का विकृत विद्रूप रचाते हो तुम ।।
दुनियाँ वालों मैं पूछू क्या यही है तेरा चिन्तन ।
जिससे नित जुझ रहा है , जीवन का सुन्दर उपवन ।।
चिर द्रोह दिशाएँ दुर्दिन , की घड़ियाँ गिनती रहती ।
आकाश भूमि और सागर की , लहरें रो – रो कहती ।।
विध्वंश विश्व में सम्भव , हो सकता कभी न भूलो ।
सह भीषण दावानल को , जो जीता उसे कबूलो ।।
शान्ति के पथ के राही , तू कैसे आशा पाले ।
जी रहे दंद अपनाकर , तू इतने भोले – भाले ।।
प्रकृति को जो पहचाना , विज्ञान खड़ाकर उसका ।
संधान तुझे दिखलाकर प्रदूषण लेकर टपका ।।
अब देखो दुनियाँ मरती , घुट – घुटकर इस जीवन में ।
पथ पर आकर तू देखो , जलते कितने ईंधन में ।।
ऊर्जा विच्छेपन भी है , कारण जो करे विसर्जन ।
है स्वास्थ्य एक ही धन , जिसका वह करता भक्षण ।।
एक चिन्तन जो उपयोगी , जीवन को दिशा दिखाये ।
उत्कर्ष देश का ऐसा , भंडार न खाली जाये ।।
बलवान और धनवान सुखी , चिरकाल स्वस्थ रह पाये ।
मानवता को सरसाकर वह कर्णधार बन जाये ।।
अपमान और संहार सदा से हेय कर्म कहलाते ।
दुर्जय दुस्साहस जग को सुख शान्ति नही दे पाता ।।
अब चेतो ! देर करो मत , युग बोध जरा अपनाओ ।
मानवता को ठुकराकर , दानव तुम मत बन जाओ ।।
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