नव वर्ष को अर्पित समर्पित विश्व को संगीत ।
सम्वेदना की पीड देती । चेतना के गीत ।।
उस वेदना की चिर स्मृति में खो गया अतीत ।
पाया नित्य जो नवनीत खाकर भी रहा भयभीत ।।
प्रवृत्तियों का दास मानव दुष्ट कलह प्रवीण ।
दीनता की आग में तपता मनुज बलहीन ।।
परतंत्रता की घन – घटा की नाद से संतप्त ।
कर न पाया दीनता को दूर वह मदमस्त ।।
ज्ञान की संस्कृति जब विज्ञान का प्रकाश पाया ।
कला और साहित्य का वरदान पा जग को जगाया ।।
कल्पना के तार को जब जाल सा जग में बिछाया ।
युक्ति के प्रयास से उत्साह सह उल्लास पाया ।।
बाद के प्रतिवाद में संसार खोया जा रहा था ।
संचार साधन से नया संवाद मानव चाहता था ।।
दूरी घटी , मानव जुड़ा करतल में दुनियाँ आ गयी जब ।
दृष्टि में दुनियाँ समायी भव्यता सब में सहज अब ।।
कल्पना सदियों की साबित हो चली है ध्यान देना ।
समय को पहचान कर अवसर को नव आयाम देना ।।
भौतिक जगत को प्राण का संवेग रोवट दे रहा है ।
दृष्टि की सीमा में सारा जग संभल कर चल रहा है ।।
यह वहीं है गेम , करना प्रेम सबसे बन सहारा ।
देखना है उस जगत को धर्म तेरा और मेरा ।।
देख उस उत्कर्ष को मत त्याग देना कर्म अपना ।
उपभोग और सुखभोग में युग धर्म को खोकर न रोना ।।
नव वर्ष का संदेश पाकर देखकर उत्थान करना ।
उस जमी पर प्रेम का पौधा उगाना और सीचना ।।
नीति और रणनीति दुर्बल कर रही संस्कृति हमारी ।
स्वस्थता सुचिता मानवता पर खड़ी दुर्दिन है भारी ।।
संचार मीडिया का सुखद सहयोग पाकर हम खुशी है । “
गूगल ” के तत्त्वावधान में सम्भावना की कली खिली है ।।
प्राप्त जो सम्बल जगतको लक्ष्य में रखना हमें है ।
ज्ञान और समाधान की पहचान भी बनना हमें है ।।
दीनता पर तू न सोचों हीनता मन में न लाओ ।
एकता के भाव से जग को हृदय में ही बसाओ ।।
शुभकामना देता ” गूगल ” को आजका स्वर्णिम सवेरा ।
हो भला वैश्विक धरा पर सुयश का विस्तार तेरा ।।
( डा ० जी ० भक्त )
वैशाली की धरती से भारत