विजया दशमी, अब तक दुनियाँ, न समझी न सम्हली

डॉ० जी० भक्ता

हे देवि ! तू तो लड़ी तलवार कृपाण भाला से ।
मैं लड़ता हूँ पूष्प और माला से ।।
बापू ने लड़ी सत्य अहिंसा युक्त अवज्ञा से ।
अब तू ही बता, मैं विजय पाऊँ किस प्रतिज्ञा से ।।
आज प्रत्यक्ष तू पधारी चढ़ हस्ति की सवारी ।
जन-जन को तू जगायी श्रद्धा सुमन जुटायी ।।
है एक ही निवेदन सुन दीन जन का रूदन ।
देना उन्हें नव जीवन जो बन सके संजीवन ।।
सन 1947 की आजादी से जो आशा जगी ।
चौहत्तर से सतहत्तर के बीच जो निराशा मिली ।
जपा से भाजपा, भाई बल्लभ राम मंदिर तक,
चौदह से चौबीस का ऐजेंडा चुनौती है।
अब तो हमे लड़ना है रोग और प्रदूषण से ।
अनीति असुरक्षा गरीबी और कुपोषण से ।।
सामाजिक कुप्रथाओं अपुष्ट जीवन शैली से ।
अपराधों आतंको और अवैधता की थैली से ।।
आज इस त्योहार में हमें शुचिता से दरकार है।
तेरी शक्ति जो अपार है, लेना तुझे आभार है ।।
भारत में पर्वोत्सव संस्कृति का अंग है ।
जन-जन में आस्था और भक्ति का रंग है ।।
किशोर और युवाओं में दिखता उमंग है।
बच्चों माताओं और बहनों का संग है ।।
घर-घर में पूजन आराधना आरंभ है।
चौकों बाजारों मठ मंदिरो में गुंज है ।।
गान और बाजे तमाशे में फैल रहा ।
वैदिक संस्कृति का मनोरंजक प्रसंग है ।।
पूजन और दर्शन भजन कीर्त्तन का भाव लिये,
चंदन और वंदन का प्रेमसिक्त संगम है ।।
परम्परा के पाँव से पवित्र है घरा के धाम ।
काम और नाम के आयाम तो मनोरम है ।।
युगों की स्मृति जो संस्कृति बन पधार रही।
धार्मिक प्रवृत्ति को समृद्धि क्या सॅवार सकी ?
मेरा तो ख्याल आज व्याल – सा लिपट रहा,
अरबों के माल को दलाल आज लूटता है ।
भक्ति और ज्ञान का विहान कभी होना है ?
जंगल के दंगल में मंगल कभी फल पाये ?
जन्तुओं के जाल क्या कमाल कभी कर पाये ?
देवी जो सप्तसती सुधारी न हमारी मति ।
आज सद्गति से निराश हो रही धरा ।।
विज्ञान ज्ञान हरण कर आडम्बर से ओतप्रोत,
पाहन का वाहन चढ़ स्वर्ग की ओर झांक रहा ।।
प्रेम मनुहार और दुलार से समाज सुस्त,
राहत का गेहूँ चावल, पेट पर पहाड़ गिरा ।
तुम ही बताओ देवि पूजा चढ़ाऊँ कैसे ?
चवन्नी के चन्दा से मंडप हैं सज रहे । ।
दबंगों की दुनियाँ में न भक्ति न शक्ति तो,
मुक्ति की राह पर विरक्ति ही सद्गति है । ।
आज आरत है भारती तिजारत आशन्त पाकर,
न शिक्षण से समझी न विकास ही से सम्हली ।
मानवता मुरझा गयी फैशन का उफान देख,
गुड़ियों का खेल आज मनमोहक आयाम है ।
आज बसाऊँ कल उजारूँ यह कैसा खेल ?
दुखियों के दान पर त्योहार का क्या मेल हैं ?
त्योहार एक साधना है न बचना न सर्जना है।
उत्सव और पर्व आज भंगिमा भरी गर्जना है ।।

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