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मूर्छना के स्वर
ग्प्राज धिति को छोड़ दिग्गज लुप्त है ।
वेदना है , पीड़ बरवस गुप्त है ।
चेतना की चीख क्यों अब सुप्त हैं ?
कल्पना के पंख इन दिन छुब्ध है ।
कौन आया गरल रस में घोलकर ,
तरल दिल में बंद को झकझोड़कर ,
ज्ञान की गरिमा , दिशा अब मोड़कर ,
भाग निकली इस धरा को छोड़कर ।
बच्चे , बिलखते आह भरकर मौन हैं ।
मातृ ममता को चुराया कौन है ।
वागेश्वरी । तु चुप खड़ी क्या देखती है ?
धरा तेरी दंश किसका झेलती हैं ?
बोल , तेरी आज वीणा बन्द क्यों है ?
वारिधि का ज्वार उत्तल मन्द क्यों हैं ?
व्योम से वरिद उदधि को क्यों न भरता ?
पवन चलकर क्यों न जन की दाह हरता ?
बोल , वैभव हिंद का है खो गया क्या ?
ज्ञान का सारा खजाना हो गया क्या ?
प्रेय करुणा जो तुम्हारी , हो गयी क्या ?
फिर तुम्हारी संस्कृति ही सो गयी क्या ?
चाँद पर चढ़ते ग्रहों को लांघते हो ।
दुर्गमों से पर्वतों पर फांदते हो ।
सागरों पर पूल तू ही बाँधते हो ।
विश्व को फुत्कार भरकर , हाँकते हो ।।
फिर तुम्हारे पास दुर्लभ हो गया क्या
जान की बाजी नहीं , संहार करते ।
क्या तुम्हारी चेतना जड़ता में खोकर ,
स्वार्थ में तू निज वतन को दान करते ।।
हो गया सब कुछ या बाकी शेष भी है ।
देख पाते है वतन में क्लेश भी है ?
चेत जाओं । अब अगर अवशेष हो कुछ ,
प्राण देकर दुर्दशा निःशेष कर दो ।।