हमारा परिवेश और परिप्रेक्ष्य
गाँव की गरिमा गयी अब शहर सुन्दर लग रहा है ।
अमृत घड़ा को त्याग सब विष का प्याला छक रहा है ।।
खोद कर धरती धरा पर महल सुन्दर बन रहा है ।
भार से पृथ्वी दहल भूचाल देखो चल रहा है ।।
यही है विज्ञान तेरा यही है विश्वास तेरा ।
दूषणों से पूर्ण यह आकाश है आवास तेरा ।।
प्रत्यक्ष ही विकास में विनाश लक्षित है तुम्हारा ।
तीव इस गति में छिपा अरमान का अवसान सारा ।।
त्याग दो हठ को , करो संवरण पावन ज्ञान धन का ।
त्याग , श्रम , सम्मान , सेवा , पात्रता , कल्याण जन का ।
साधना , सत्यार्थ , अर्पण दूर हो अभिमान मन का ।
हो परस्पर प्रेम समरस , भाव इस पर ध्यान सबका ।।
संकल्प हो कि सादगी लायें , सजगता कर्म पथ पर ।
स्वावलम्बन हो हमारा लक्ष्य बढ़ कर्त्तव्य रथ पर ।।
सुमन को सींचों लता – द्रुम की सुरक्षा पर भी सोचो ।
सुमन सौरभ पर मचलों मत , फल को न तोड़ो न नोचो ।।
है फल पर सबकी आशा , पूंजी वाले ही गुर्राते हैं ।
जिनसे सब कुछ है सम्भव वे देख – देख ललचाते हैं ।
चोरी करके ले जाते , शोषक शोषण कर खाते हैं ।
संगृहित अन्न को कीड़े , कैसे सबदिन चटकर जाते हैं ।।
देख दुर्दशा हृदय दहलता सहनशील जनता का ।
पाया हो सम्मान जगत में क्षमाशील ममता का ।।
लूट का धन और ढोग विकास , का देखो पाता है समान ।
छीना रोजगार दीनों का दिखा मशीनों का एहसान ।।
जगमग नगरों की दुनियाँ , पगपग पर झंझा झेले ।
लूट , तस्करी , शील हरण , अपहरण के लगते मेले ।।
न्याय सिसकता अखबारों में , न्यायालय सुख का आगार ।
दौड़ लगाती दफ्तर जाती , लौट – लौट जाकर दरबार ।।
काम नहीं करते जो बाबू उनसे चलती है सरकार ।
काम कराते वहाँ एजेन्ट है नेता जी को क्या दरकार ।।
ऐसा है गणतंत्र हमारा यही सुनहरा ग्राम स्वराज्य ।
मनरेगा अंत्योदय चलते इतना सुन्दर , कैसे त्याज्य ?
आओ गठबन्धन हम कर लें , बाँट – बाँट कर करलें राज ।
जनमंगल से जनमत बनता इसमें किसको है एतराज ।।
दूरदर्शी नेता समाज के संविधान को रखकर ताख ।
देश चलाते अपनी मर्जी , जनता खोदी अपनी आँख ।।
देखो रैली चल निकली है , है विकास का एक ही राज ।
राजनीति का गुर बतलाते , रोटी भर को हैं मुहताज ।।
जिनकी चलती बात ब्लॉक में , जिनके सर नेता का हाथ ।
मेरा नेता वही एक है , चलना मुझकों उनके साथ ।।
सही अर्थ है लोकतंत्र का , यही एकता यही स्वराज ।
राजनीति का मूल मंत्र यह जिसकी लाठी उसका राज ।।
नेता का विश्वास इसी में जन को छोड़ों , मत को लाओ ।
जनता चलती चाल अजब की , छोड़ चलो परिवर्तन पाओ ।
सबका मुखड़ा एक तरह का , बातों पर तुम मत ललचाओ ।
लोकतंत्र का सही मुखौटा गढ़कर तू जनतंत्र बचाओं ।।