ईश्वराराधन व्रत और त्योहार क्या इससे पाता मुक्ति संसार

डा० जी० भक्त

जीवन और जगत दोनों में चलता मारा-मारी।
जब मानस से गुजरे अंधकार हीं काली।।
इसको कहते है अज्ञानी और पीटते थाली।
नहीं जानते हम जीवन की ऐसी कितनी कहानी ?
ज्ञान और विज्ञान परस्पर एक-दूसरे।
जीते मरते विश्व विजय की यात्रा करते।।
जो विकास कल्याण और उत्थान के राही।
उसको दुनियाँ देख रही संतुलित सिपाही ।।
जीवन और जगत का है संबंध इतना गहरा।
जिसकी तुलना कर सकते हम जो अकतक है ठहरा।।
जन्म मरण पालन पोषण का इतना सबल विधान यहीं।
सृष्टि का संचालन आश्रय सबका जुट कर चल ही रहा।।
इसकी सत्ता सबल प्रबल कि पृथ्वी से आकाश तथा।
भूगर्भ भूतल सजल जंगल हिम प्रस्तर ग्रह सदा।।
प्रकृति जो सम्बल किये घनघोर आतप है लिए।
प्रकाश, वायु, ताप, उदधि, धन घटा एक तड़ित किए।।
है हरित धरती उदित दिनकर चन्द्र शोभित नित गगन।
ह प्राण देता जीवन को और दान नित तरु को पवन ।।
जो स्वाद दृष्टि श्रवण कुंड, स्पर्श ज्ञान से सदा सुसज्जित।
उस देह पंजर में प्रकाशित आत्म सत्ता पंच भौतिक ।।
भौतिक सत्ता की आत्मीयता, ब्रह्म सत्ता प्रणत पालित
देह मानस और प्रज्ञा ज्ञान वैभव कर्म कलुषित ?
संतति, सम्पत्ति अर्जित चर्म ध्यानावस्थित फिर भी।
भव भूति बघन ग्रंथि से निस्तार जो पाता नहीं।।
सत्य अहिंसा प्रकृत्ति की रक्षा, पर्यावरण की शुद्धता हो।
ज्ञान में कल्याण कल्पित कर्म में हो आत्म शुद्धि ।।
सुसंस्कृत परिवार के परिवेश में व्यवहार नैतिक।
जहाँ परिस्कृत वाणी, अल्पाहार सात्विक और नैतिक।।
व्रत पूजा परिधान तीर्थ संस्कार युक्त वातावरण हो।
कष्ट की कुंठा न सेवा भाव में कट्ता हो लक्षित।।
उसकी शक्ति और भक्ति कष्ट से मुक्ति सदा ही संचित।
हम सदा इसके ऋणी रहकर जीते सुख-दुख पाते।
प्रेम मगन रहकर जो सुचिता सहज ही सुलम सजाते।।
जीवन में सत रज तम तोनों गुण की छाया।
पड मानस को द्रवित और किचित भरमाया ।।
संस्कार गुण दोष प्रवृतियाँ सुपश और गरिमा।
जिसकी गति मति जैसी उसकी वैसी प्रतिमा।।
पाप पुण्य कहते है जिसको सभी कर्म है।
कर्म धर्म सर्वस्व यज्ञ, दुष्कर्म व्याज्य है।।
रामायण में राम की उक्ति सफल यही है जग में।
काल कर्म स्वभाव और गुण ही पहचान बनते हैं।।
ये सारे कारण बनते है ज्ञान परक बातें है ये सब।
जग में महत्त्वपूर्ण ज्ञान है जिससे शोधन होता सम्भव।।
यही भाव है पूजा भक्ति, तीर्थाटन और आराधन में।
मंत्र जाप, गुण गान तपस्या उत्सव व्रत पारायण।।
ब्रह्मा विष्णु शकर हनुमत गीता या रामायण।
चरण, शरण, दर्शन, पर्यटन अथवा भगवद्रस्मरण ।।
जहाँ हो अत्याचार द्वेष दुर्भाव घृणा और हिंसा।
अनाचार असत्य सम्भाषण, नही हो साधन पूजा ।।
गंगा पूजन, जल स्नान जलपान और दर्शन ज्ञान।
हरेक हृदय में एक ही आत्मा घर-घर में भगवान ।।
भजन और संकीर्तीन, पादोदक और चरणमृत।
यज्ञ, तपन, आराधन मेघ, अभिषेक, और आत्मर्पण ।।
इतना सब जब पार लगे तो प्रसाद वितरण और विसर्जन।
यह है मेरा धर्म, कर्म सिद्धि समृद्धि दर्शन ।।
भ्रम में मूल हानि में शूल, कभी प्रतिकूल आडम्वर।
चंदन, केश, वस्त्र कमंडल, झोली और कम्बल ।।
घर की ममता छोड़ विचरना गले माल कान में कुंमडल।
व्रत स्नान में सात्विक भोजन पारण के दिन मत्स्य का भक्षण ।।
बोलो भैया ऐसा हो ईश्वराराधन और व्रत त्योहार ।
तो क्या होगा इससे मुक्ति पयावरण शुद्ध संसार ।।

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