हमारे पर्व त्योहार

डा० जी० भक्त

सामाजिक सरोकार, जन समाहार।
होली है हमारा हार्दिक उद्‌गार।।
क्यों न मनाएँ हम आज होली।
देखों सर्वत्र जुटी और की होली।।
बच्चे और बृद्ध, नर नारियों की बोली।
कितनी रसीली प्रेमोपहार की ठिठीली।।
हाथों में झोली लिए रंग और रोली।
व्यसनों के जमघट लगते है मचती हँसी हिंडोली ।।
खान पान, परिधान, गान के रौनक की मत पूछो।
कितने लोग मजे में झूमते मुखिया जी की भी मूछे।।
ये सारे है खेल रेस बच्चों मद मस्तो के जो।
नहीं पर्व त्योहार में आते, इतने हम करते सो।।
सोचो, ऊपर क्या कहते है जरा विचार कर देखें।
वे सारे आदर्श छिपे जो जीवन शैली बोले ।।
हँसना, गाना, खुसी मनाना, घर घर जाकर मिलना।
प्रेम जताना, गले लगाना, रंग गुलाल लगाना।।
पास पड़ोस, मित्र सम्बन्धी, जन जन छोटे और बड़े।
सबको एक समझना, खाना, समरसता, एकता हृढ़ बने।।
ऐसी रही परम्परा व्रत की जिससे एकता बनी रहे।
स्नेह और स‌द्भाव सदा सम्मान ध्यान से नहीं हटे।।
इस बसन्त के मौसम में जब प्रकृति सुहावन है दिखती।
फल- फुलों मंजर से भूषित, हरित फलित दिखती जयती।।
हे मानव, तू देव भूमि के, संस्कृति के तू सभी पुजारी।
क्यों न मनाये व्रत त्योहारे जिससे यादगारी दिखे हमारी।।
जुटना, जुड़ना, मिलना, खाना, हद्धय लगाते बनती एकता।
यादगार व्यवहारख सामयिक, समाहार में फली मानवता ।।
नहीं मानवता, वस्त्रा- भूषण, न वैभव नहीं समृद्धि।
केवल बुद्धि की उज्ज्वलता, जीवन शैली और संस्कृति।।
भारतीयता मानवता हिन्दुत्व न केवल विश्व प्रेम से।
बन सकते है सदा सनातन, ज्ञान और सम्मान देश में।।
आज हमारी शिक्षा का अवरोह हमे दुख दर्द दे रही।
इसी हेतु संस्कृति हमारी क्षरण दिशा की ओर मुड़ रही।।
आडम्वर को मत बढ़ने दो, सदा सत्य की ओर बढ़ो।
ज्ञान को वस्त्र बनाओ, विज्ञान को भूलों, पर नैतिकता अपनाओं ।।
यहीं सीख देता त्योहार, इसका तू करना सत्कार।
यही तुम्हारा देगा साथ, सदा मिलाना उससे हाथ ।।

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