जीवन दर्शन

(आध्यात्म खण्ड)

डा० जी० भक्त

जन्म मरण जीवन के दो ध्रुव,
जिनके अन्दर वृत्ति अपूर्व।
शैशव बचपन युवा किशोर,
यौवन प्रौढ़ वृद्ध नर खर्व ।।
पालन पोषण भोजन पान,
कीड़ा शयन सुखद विश्राम।
लार प्यार संज्ञान बोध का,
भाषा ज्ञान वाचन पहचान।।
गावण बोध संभाषण वादन,
गायन क्रंदन और अभिवादन।
गमनागमन अंग संचालन,
आज्ञा पालन और अनुशासन ।।
शिक्षा ग्रहण स्मरण और लेखन
उच्चारण हृदयाभिव्यंजन ।
ये सारे आयाम हमारे,
जीवन के मौलिक संवेदन।।
उपरोक्त कर्म विन्यास बने,
अभ्यास विकास मानव जीवन के।
और चेनना जगी प्रेरणा,
नीव बनी दृढ मानवता के ।।
जिन पर निर्भर जीवन शैली,
कौशल अर्जन और प्रचलन।
बाल किशोर युवक के जीवन,
गृह चरित्र के बने उदाहरण।।
यौवन में कर्त्तव्य बोध,
गाहस्थ पल्लवन के संचरण।
ज्ञान कर्म व्यवहार सरल,
संवाद सुभग और प्रेम संवरण।।
दान दया संतोष निमज्जित
परोपकार सद्धर्म प्रकाशित।
सत्य अहिंसा, भय न चिन्ता,
दृढ़ विश्वास ईश पर आश्रित ।।
स्नेह सूत्र मतभेद मुक्त
संस्कार शुभ्र, उपकार प्रभासित।
जाति धर्म भाषा से नफरत,
निश्चित करूण कथा परिलक्षित ।।
जीवन की गति होती समरस
टूट न पाते स्वर वीणा के।
नकारात्मक दिशा दिखी तो
उलटी गिनती शुरू जीवन की ।।
जड़ता से गमता का जुड़ना,
बन सकता विध्वंश का कारण।
सुरासुर संघर्ष जिस तरह
रावण राम युद्ध प्रकरण ।।
भोग रोग विन्यास नाश
प्रयास हास की अमर कीत्ति है।
आलस विलाश कुंठा विकास में,
सदा ह्रास की मूल प्रवृत्ति।
जीवन को जीवित रखना तो,
जलना नहीं जलद बनना है।
खुद को खोकर जग को जोड़ो
महाप्राण बन कर जीना है।।
मानो, मरण हेतु नहीं जीवन
मरकर जीवन को जीना है।
पेट न पोषो, पंचको पोषो
जीवना दर्श यही कहता है।।

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