एक रहस्मय रक्षाबंधन

डा० जी० भक्त

निखर रहें है आज गाँव घर और वहाँ के हाट बजार।
जैसे निक्षर रहा हैं देखते भाई बहन का निर्मल प्यार ।।
हँसी खुशी और प्रेम प्लावित रक्षाबंधन का त्योहार ।
विगत शाम से लेकर दिन भर लगी रही जन की भरमार ।।
माता बहने और युवा जब चले शहर में देखी भीर ।
लोगों की इस कसमकसी में चलना मुश्किल या गंभीर ।।
रंग विरंगे विविध डिजाइन लटके सजे अनंत अपार ।
और मिठाई के क्या कहने सब मीठे व्यंजन भंडार ।।
जरा सोचिये, रक्षाबंधन कितना मार्मिक कितना शस्वत ।
अगर इसे सब अपनाये तो बन जाये दुखियों का किस्मत ।।
तब तो अबलाओं ने इसको अपनाया और जुटी रही।
इतना ही नहीं, इससे बढ़कर प्रभी बनकर खड़ी हुयी ।।
जरा सोचिये, हम हैं कितने और गोपालक होंगे कितनें ?
अब आये हम उन मुद्दों पर सोचे उत्पादन है जितने ।
वे पेड़े, रसगुल्ले, बरफी, अगणित नाम तादाद असीम ।।
इसके कारण सुनिये मुझसे दिव्य प्यार है भाई बहन का ।
इससे दिव्य भाई की आशा खायेंगे मिष्ठान्न अन्हीं का ।।
हम भारतवासी व्रत करते देव पूजते प्रार्थना करते।
परमेश्वर है प्रेम के पक्षधर और प्रेम के भूखे होते ।।
लिखना शुरू किया थ कविता श्रीमति जी आयी शीघ्र ।
बाँध कलाई रक्षबंधन, ही का करके दौड़ी तीव्र ।।
जब तक सोच न पाया यह क्या भर थाली मिष्ठान बढायी।
बोली बहन हमी को माने भाव भरी मुस्कान जता थी ।।
आश्चर्य से कहाँ शीघ्र मैं तेरा पुरूष तुम्ही हो धनिया ।
पुनः सम्हल कर बोल पड़ी बस आज बहन हूँ कल फिर कनिया ।।

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