गिरती गरिमा का परिदृश्य
1
हम भरत के वंश हरि के दंत गनिते ।
दिव्य वेदों की ऋचायें याद करते ।।
आज गरिमा जो हमारी गिर रही है ।
और बढ़ता दैन्य दुनियाँ सो रही है ।
2
कौन दे अब मंत्र जीवन जड़ बना है ।
ज्ञान की गाथा व्यथा का घर बना है ।
लोग कहते सत्य का युग सो रहा है ।
दुर्गुणों से लाभ जग में हो रहा है ।
3
ये अभागे , ज्ञान की पहचान खोदी ।
गंग की धारा में कचड़े डालकर तू ।।
स्वच्छता का स्पपन सुंदर देखते हो ।
कालिखों से देव मंदिर पोतते हो ।
4
आज भी इतिहास गाकर कह रहा है ।
देश बहरा बन , कभी क्या सुन रहा है ?
शरवतों में क्षार नित दिन धोलकर तू ,
पियूष के बदले कलुष को चुन रहा है ।।
5
कहो इन्द्रप्रस्थ तू अपनी कथा सुनाओ ।
देवव्रत की शरशया की व्यथा बनाओ ।
कहो विभीषण भरिच की माया क्यों छायी ?
माँ – सीता पर त्रिजटा कैसे स्नेह जतायी ?
6
ज्ञानी रावण , शिवभक्त , लंकेश धुरंधर ।
अति प्रतापी , मायावी , राक्षस दशकंधर ।।
छल प्रपंच वश समझी नहीं दानकी माया ।।
तब तो रावण सीता हरण सफल कर पाया ।
7
भाई – भाई का घातक , फिर भ्रातृत्व कहाँ है ?
माता विवश पड़ी जग में मातृत्व कहाँ है ?
मित्र – मित्र को ठगे प्रेम का कैसा पाला
पड़ा प्यार में खलल कहो कैसा कर डाला ?
8
सतयुग में कौशिक का क्रोध कराल गजब का ।
पुत्र – शोक , मार्या , फिर व्रत का ख्याल अजब का ।।
अंग वस्त्र का दान , दलन था अहंकार का ।।
वृथा स्वर्ग का दम्भ , सुयशसब संस्कार का ।।
9
द्वापर का दावाबल पाण्डव झेल अमर है ।
दुर्जय शस्त्रों के प्रयोग की भूमि समर है ।।
जन पर जनतंत्र की महिमा क्रूर कहर है ।
कैसे नेता कहते इसे विकास लहर है ।