सृष्टि के बदलते आयाम
1
ब्रह्म और प्रकृति के अदभूत खेल सरीखे ,
सूर्य चन्द्र नक्षत्र सितारे सबकुछ देखे ।
पृथ्वी सागर भूमि पवन जंगल फिर पानी ,
दिवा – रात्रि , दुति – तिमिर सदा संग एक ही जानी ।
2
बादल वृक्ष पहाड़ वनस्पति नही की धारा ।
जैव जगत औषधि सहायक सकत तुम्हारा ।।
लेकिन सब पर स्वत्व मनुज ही का छाया है ।
चुन – चुन कर वह सब का भक्षण कर पाया है ।
3
प्रवृत्तियों का दास , सुखों का सर्जक मानव ।
भोग परिग्रह स्वार्थ बनाया उसको दानव ।।
अरे चेतना के सम्लब पर जीने वाले ।
जीव – जीव का भक्ष्य , अहं पर मरने वाले ।।
4
यह कैसा व्यापार देव – दानव का देखा ।
लोभ मोह तृष्णा अपनाना सबने सीखा ।।
सृष्टि में यह रोग विवसता का बन कारण ।
विद्वेषण , वशित्त्व , उच्चाटन , मोहन , मारण ।।
5
शान्तिकण ही मात्र सतोगुण देखा जन में ।
और अनेको रज – तम उपजा ही जन मन में ।।
देव सा ही शुद्ध – बुद्ध प्रबुद्ध विवेकी ।
उनमें कटुता और कोलाहल कभी न देखी ।।
6
ये मानस के शुद्ध परायण सद्गुण ग्राही ।
तपोनिष्ठ बन कर जीते सत पथ के सही ।।
गरिमा खो सम्मान जीतना दुर्लभ उनमें ।
संयम , श्रद्धा , शील , स्वर्ण – सी दीप्ति तन में |
7
भ्रम , भूल , विर्तक सफलता में है बाधक ।
प्रेम , श्रम , सद्भाव सजगता ही है साधक ।।
इनके ही सम्वरण सूत्र पर जीवन चलता ।
वही प्रतिष्ठा पा गौरव से सदा मचलता ।।
8
बना हितैषी जगका जो परमार्थ कमाया ।।
पर हित वंचक ने अपना सर्वस्व गॅवाया ।।
व्रत – सेवा , सन्मार्ग , सुचिन्तन प्रेम जगत में ।
शास्वत सुन्दर सत्य सदा चर्चित है तप में ।।