जीवन , सत्ता और सम्मान
जन से जग , जग से जनजीवन ,
जीवन से जग का विस्तार
जग में जीवन से जन सत्ता ,
जन सत्ता से जग उद्धार ।।
सत्ता का उत्कर्ष बताता
जग जीवन का व्यापक भाव ।
इससे ही संस्कृति है फलती ,
विश्व प्रेम से सदा लगाव ।।
सूरज चन्द्र सितारे धरती ,
जंगल जीव जगत के प्राणी ।
ब्रह्म जीय प्रकृति के अन्तर
चेतन मन कहते है ज्ञानी ।।
इसी चेतना के प्रकाश में ,
गति का चलता रहा प्रवाह ।
उसी प्रवाह में जीवन का रस
विविध कर्म का किया प्रयास ।।
कर्म ही जीवन , कर्म ही सृजन ,
कर्म से सृजन किया विकास ।
कर्म ही पालक , कर्म ही पोषक ,
अहित कर्म से सदा विनाश ।।
कर्म पूज्य है , सदा प्रकाश्य है ,
कर्म ज्ञान का प्रति फलन है ।
कर्म – ज्ञान – विज्ञान कला है ,
कारण और प्रभाव मिला है ।
कर्म प्रवर्तक कर्म विसर्जक ,
कर्म ही ईश्वर का प्रतीक है ।
कर्म प्रतिष्ठा , कर्म अनादर
कर्म विभेदक , सम्बर्द्धक है ।
कर्मोद्वारक , कर्म सचेतक ,
कर्म जाति की है पहचान ।
कर्म , धर्म , जीवन , प्रकरण
कर्म कभी जीवन की शान ।।
इन्ही कर्म विन्यास से निःसृत ,
वैभव का विराट भंडार ।
और अनन्त लक्ष्य का सृजन
अखिल विश्व का किया प्रसार ।।
ब्रह्म सत्ता का प्रतिफलन है .
कर्म अनन्त सत्ता का कारक ।
कर्म सफलता के विपाक बस ,
बनता सर्जक और उद्धारक ।।
जन सत्ता जीवन सत्ता से
ताल मेल रखना उपयुक्त ।
इससे इतर विखरता जीवन
देह प्राण विन अनुपयुक्त ।।
मानो सत्ता से पोषित है .
जीवन और जगत का लक्ष्य ।
जीवन सत्ता के मिटते ही ,
कहो कौन किसका है भक्ष्य ।।
इसी तरह सोचो मित्रों तुम ,
बाल – वृद्ध – युवा – नर – नारी ।
सत्ता के संयम का मिटना
कितनी दूभर दुनियाँ सारी ।।
चेतो मानव इसी जगत में ,
नृत्य प्रलय का होता आया ।
धन – बल – साहस अथक प्रयास भी ,
विगत चूक से बच नहीं पाया ।।