कितने अपने से लगते हो तुम

बिपिन कुमार (पटना, बिहार)

कितने अपने से लगते हो तुम
जबकि जालिम दुनिया की नजरों में
कितना जुदा मुझसे रहते हो तुम ।
न मिलना एक पल के लिए भी
फिर भी हर पल मेरे पास रहते हो तुम ।
होठों से न बोलना एक लव्ज भी कभी
फिर भी हर बात चुपके से गुनगुना जाते हो तुम ।
अपनी भीनी-भीनी ईश्क की महक से हर पल
मेरे दिल की बगिया को महकाते हो तुम ।
मेरे इस बिरान दिल-ए-बगिया में
यादों की पंक्षी बन चहल-पहल मचाते हो तुम
जब भी मै होता हूँ सूखी जमीं की तरह,
प्यार की नई अंकुरन लिए
उसे सींचने प्रेम का अमृत लिए
फौरन ही बादल बन बरस जाते हो तुम।।
तुम्हारी उदासी का आभास
तुम्हारी खुशी का उल्लास
तेरी हर पल की भनक होती है मुझे ।
ये मन की तरंगे जो जुड़ती है,
तेरे-मेरे मन की सम-आवृत्ति से
कराती है एहसास मुझे तेरी हर अनुभूति से ।
तेरा कब रुठना,
तेरा कब मानना,
तेरे दिल का कब प्रेम से उमड़ा होना ।
और मेरी थोड़ी सी गुस्ताखी पर
प्यार भरी नफरतों से मुझे दंडित करना
मुझे हर बात का पता चल जाता है
ये मोहब्बत भी एक दिव्य शक्ति है
बिन कहे-सुने एक-दूजे को
हर हालात का पता चल जाता है।।

काव्य कुंज कलिका ( कविता संग्रह ) / Kavya Kunj Kalika (Poetry Collection)

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