हमारा परिवेश और परिप्रेक्ष्य Hindi poems and poetry Dr. G. Bhakta

 हमारा परिवेश और परिप्रेक्ष्य

गाँव की गरिमा गयी अब शहर सुन्दर लग रहा है ।

अमृत घड़ा को त्याग सब विष का प्याला छक रहा है ।।

खोद कर धरती धरा पर महल सुन्दर बन रहा है ।

भार से पृथ्वी दहल भूचाल देखो चल रहा है ।।

यही है विज्ञान तेरा यही है विश्वास तेरा ।

दूषणों से पूर्ण यह आकाश है आवास तेरा ।।

प्रत्यक्ष ही विकास में विनाश लक्षित है तुम्हारा ।

तीव इस गति में छिपा अरमान का अवसान सारा ।।

त्याग दो हठ को , करो संवरण पावन ज्ञान धन का ।

त्याग , श्रम , सम्मान , सेवा , पात्रता , कल्याण जन का ।

साधना , सत्यार्थ , अर्पण दूर हो अभिमान मन का ।

हो परस्पर प्रेम समरस , भाव इस पर ध्यान सबका ।।

संकल्प हो कि सादगी लायें , सजगता कर्म पथ पर ।

स्वावलम्बन हो हमारा लक्ष्य बढ़ कर्त्तव्य रथ पर ।।

सुमन को सींचों लता – द्रुम की सुरक्षा पर भी सोचो ।

सुमन सौरभ पर मचलों मत , फल को न तोड़ो न नोचो ।।

है फल पर सबकी आशा , पूंजी वाले ही गुर्राते हैं ।

जिनसे सब कुछ है सम्भव वे देख – देख ललचाते हैं ।

चोरी करके ले जाते , शोषक शोषण कर खाते हैं ।

संगृहित अन्न को कीड़े , कैसे सबदिन चटकर जाते हैं ।।

देख दुर्दशा हृदय दहलता सहनशील जनता का ।

पाया हो सम्मान जगत में क्षमाशील ममता का ।।

लूट का धन और ढोग विकास , का देखो पाता है समान ।

छीना रोजगार दीनों का दिखा मशीनों का एहसान ।।

जगमग नगरों की दुनियाँ , पगपग पर झंझा झेले ।

लूट , तस्करी , शील हरण , अपहरण के लगते मेले ।।

न्याय सिसकता अखबारों में , न्यायालय सुख का आगार ।

दौड़ लगाती दफ्तर जाती , लौट – लौट जाकर दरबार ।।

काम नहीं करते जो बाबू उनसे चलती है सरकार ।

काम कराते वहाँ एजेन्ट है नेता जी को क्या दरकार ।।

ऐसा है गणतंत्र हमारा यही सुनहरा ग्राम स्वराज्य ।

मनरेगा अंत्योदय चलते इतना सुन्दर , कैसे त्याज्य ?

आओ गठबन्धन हम कर लें , बाँट – बाँट कर करलें राज ।

जनमंगल से जनमत बनता इसमें किसको है एतराज ।।

दूरदर्शी नेता समाज के संविधान को रखकर ताख ।

देश चलाते अपनी मर्जी , जनता खोदी अपनी आँख ।।

देखो रैली चल निकली है , है विकास का एक ही राज ।

राजनीति का गुर बतलाते , रोटी भर को हैं मुहताज ।।

जिनकी चलती बात ब्लॉक में , जिनके सर नेता का हाथ ।

मेरा नेता वही एक है , चलना मुझकों उनके साथ ।।

सही अर्थ है लोकतंत्र का , यही एकता यही स्वराज ।

राजनीति का मूल मंत्र यह जिसकी लाठी उसका राज ।।

नेता का विश्वास इसी में जन को छोड़ों , मत को लाओ ।

जनता चलती चाल अजब की , छोड़ चलो परिवर्तन पाओ ।

सबका मुखड़ा एक तरह का , बातों पर तुम मत ललचाओ ।

लोकतंत्र का सही मुखौटा गढ़कर तू जनतंत्र बचाओं ।।

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